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Bhagavad Gita As It Is Hindi:श्रीमद भगवद गीता यथारूप

Bhagavad Gita As It Is Hindi
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श्रीमद भगवद गीता यथारूप: Bhagavad Gita As It Is Hindi

श्री श्रीमद ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद 

श्रीमद्भगवद्‌गीता(best bhagavad gita book in hindi) हिन्दुओं के पवित्रतम ग्रन्थों में से एक है। कुरुक्षेत्र युद्ध में भगवान श्री कृष्ण ने गीता (best bhagavad gita in hindi) का सन्देश अर्जुन को सुनाया था। जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और जीवन की समस्यायों से लड़ने की बजाय उससे भागने का मन बना लेता है, उसी प्रकार अर्जुन अपने सामने आने वाली समस्याओं से भयभीत होकर जीवन और क्षत्रिय धर्म से निराश हो गए थे। अर्जुन की तरह ही हम सभी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में या तो हताश हो जाते हैं और या फिर अपनी समस्याओं से विचलित होकर भाग खड़े होते हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान में धर्म से ज्यादा जीवन के प्रति अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को लेकर भारत में ही नहीं विदेशों में भी लोगों का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रही है। निष्काम कर्म का गीता का संदेश प्रबंधन गुरुओं को भी लुभा रहा है। विश्व के सभी धर्मों की सबसे प्रसिद्ध पुस्तकों में शामिल है।



bhaktiapp.in पर हम सम्पूर्ण श्री श्रीमद ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद द्वारा रचित श्रीमद भगवद गीता यथारूप (bhagavad gita as it is - prabhupada) प्रकाशित करेंगे। इस श्रृंखला की पहली कड़ी में आज पढ़ें श्री श्रीमद ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद द्वारा लिखा गया आमुख और पहले अध्याय के पहले श्लोक का अर्थ और उसकी व्याख्या।

आमुख

श्री श्रीमद ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद 

सर्वप्रथम मैंने भगवद्गीता यथारूप (bhagavad gita yatharoop) इसी रूप में लिखी थी जिस रूप में अब यह प्रस्तुत की जा रही है । दुर्भाग्यवश जब पहली बार इसका प्रकाशन हुआ तो मूल पाण्डुलिपि को छोटा कर दिया गया जिससे अधिकांश श्लोकों की व्याख्याएँ छूट गईं थीं । मेरी अन्य सारी कृतियों में पहले मूल श्लोक दिये गये हैं, फिर उनका अंग्रेजी में लिप्यन्तकरण, तब संस्कृत शब्दों काअंग्रेजी में अर्थ, फिर अनुवाद और अन्त में तात्पर्य रहता है । इससे कृति प्रामाणिक तथा विद्वत्तापूर्ण बन जाती है और उसका अर्थ स्वतः स्पष्ट हो जाता है । अतः जब मुझे अपनी मूल पाण्डुलिपि को छोटा करना पड़ा तो मुझे कोई प्रसन्नता नहीं हुई । किन्तु जब भगवद्गीता यथारूप की माँग बढ़ी तब तमाम विद्वानों तथा भक्तों ने मुझसे अनुरोध किया कि मैं इस कृति को इसके मूल रूप में प्रस्तुत करूँ । अतएव ज्ञान की इस महान कृति को मेरी मूल पाण्डुलिपि का रूप प्रदान करने के लिए वर्तमान प्रयास किया गया है जो पूर्ण परम्परागत व्याख्या से युक्त हैं, जिससे कि कृष्णभावनामृत आन्दोलन की अधिक प्रगतिशील एवं पुष्ट स्थापना की जा सके ।
हमारा कृष्णभावनामृत आन्दोलन ऐतहासिक दृष्टि से प्रामाणिक, सहज तथा दिव्य है क्योंकि यह भगवद्गीता यथारूप (bhagavad gita in hindi) पर आधारित है । यह सम्पूर्ण जगत में, विशेषतया नई पीढ़ी के बीच, अति लोकप्रिय हो रहा है । यह प्राचीन पीढ़ी के बीच भी अधिकाधिक सुरुचि प्रदान करने वाला है । प्रौढ़ इसमें इतनी रूचि दिखा रहे हैं कि हमारे शिष्यों के पिता तथा पितामह हमारे संघ के आजीवन सदस्य बनकर हमारा उत्साह वर्धन कर रहे हैं । लॉस एंजिलिस में अनेक माताएँ तथा पिता मेरे पास यह कृतज्ञता व्यक्त करने आते थे कि मैं सारे विश्र्व में कृष्णभावनामृत आन्दोलन की अगुआई कर रहा हूँ । उनमें से कुछ लोगों ने कहा कि अमेरिकी लोग बड़े ही भाग्यशाली हैं कि मैंने अमरीका में कृष्णभावनामृत आन्दोलन का शुभारम्भ किया है । किन्तु इस आन्दोलन के आदि प्रवर्तक तो स्वयं भगवान् कृष्ण हैं, क्योंकि यह आन्दोलन बहुत काल पूर्व प्रवर्तित हो चुका था और परम्परा द्वारा यह मानव समाज में चलता आ रहा है । यदि इसका किंचित्मात्र श्रेय है जो मुझे नहीं, अपितु मेरे गुरु कृष्णकृपामूर्ति ॐ विष्णुपाद परमहंस परिव्राजकाचार्य १०८ श्री श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज प्रभुपाद के कारण है ।

यदि इसका कुछ भी श्रेय मुझे है तो बस इतना ही कि मैंने बिना किसी मिलावट के भगवद्गीता को यथारूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । मेरे इस प्रस्तुतीकरण के पूर्व भगवद्गीता (bhagavad gita full in hindi) के जितने भी अंगेजी संस्करण निकले हैं उनमें व्यक्तिगत महत्त्वकांक्षा को व्यक्त करने के प्रयास दिखते हैं । किन्तु भगवद्गीता यथारूप प्रस्तुत करते हुए हमारा प्रयास भगवान् कृष्ण के सन्देश (मिशन) को प्रस्तुत करना रहा है । हमारा कार्य तो कृष्ण की इच्छा को प्रस्तुत करना है, न कि किसी राजनीतिज्ञ, दार्शनिक या विज्ञानी की संसारी इच्छा को, क्योंकि इनमें चाहे कितना ही ज्ञान क्यों न हो, कृष्ण विषयक ज्ञान रंच मात्र भी नहीं पाया जाता । जब कृष्ण कहते हैं - मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु - तो हम तथाकथित पण्डितों की तरह यह नहीं कहते कि कृष्ण तथा उनकी अन्तरात्मा पृथक्-पृथक् हैं । कृष्ण परब्रह्म हैं और कृष्ण के नाम, उनके रूप, उनके गुणों, उनकी लीलाओं आदि में अन्तर नहीं है । जो व्यक्ति परम्परागत कृष्ण भक्त नहीं है उसके लिए कृष्ण के सर्वोच्च ज्ञान को समझ पाना कठिन है । सामान्यतया तथाकथित विद्वान, राजनीतिज्ञ, दार्शनिक तथा स्वामी कृष्ण के सम्यक् ज्ञान के बिना भगवद्गीता पर भाष्य लिखते समय या तो कृष्ण को उसमें से निकाल फेंकना चाहते हैं या उनको मार डालना चाहते हैं । भगवद्गीता का ऐसा अप्रामाणिक भाष्य मायावादी भाष्य कहलाता है और श्री चैतन्य महाप्रभु हमें ऐसे अप्रामाणिक लोगों से सावधान कर गये हैं । वे कहते हैं कि जो व्यक्ति भगवद्गीता को मायावादी दृष्टि से समझने का प्रयास करता है वह बहुत बड़ी भूल करेगा । ऐसी भूल का दुष्परिणाम यह होगा कि भगवद्गीता के दिग्भ्रमित जिज्ञासु आध्यात्मिक मार्ग दर्शन के मार्ग में मोह ग्रस्त हो जायेंगे और वे भगवद्धाम वापस नहीं जा सकेंगे ।



भगवद्गीता यथारूप को प्रस्तुत करने का एकमात्र उद्देश्य बद्ध जिज्ञासुओं को उस उद्देश्य का मार्ग दर्शन कराना है, जिसके लिए कृष्ण इस धरा पर ब्रह्मा के एक दिन में एक बार अर्थात् प्रत्येक ८,६०,००,००,००० वर्ष बाद अवतार लेते हैं । भगवद्गीता में इस उद्देश्य का उल्लेख हुआ है और हमें उसे उसी रूप में ग्रहण कर लेना चाहिए अन्यथा भगवद्गीता तथा उसके वक्ता भगवान् कृष्ण को समझने का कोई अर्थ नहीं है । भगवान् कृष्ण ने सबसे पहले लाखों वर्ष पूर्व सूर्यदेव से भगवद्गीता का प्रवचन किया था । हमें इस तथ्य को स्वीकार करना होगा और कृष्ण के प्रमाण की गलत व्याख्या किये बिना भगवद्गीता के ऐतिहासिक महत्त्व को समझना होगा । कृष्ण की इच्छा का सन्दर्भ दिये बिना भगवद्गीता की व्याख्या करना महान अपराध है । इस अपराध से बचने के लिए कृष्ण को भगवान् रूप में समझना होगा जिस तरह से कृष्ण के प्रथम शिष्य अर्जुन ने उन्हें समझा था । भगवद्गीता का ऐसा ज्ञान वास्तव में लाभप्रद है और जीवन-उद्देश्य को पूरा करने में मानव समाज के कल्याण हेतु प्रामाणिक भी होगा ।

मानव समाज में कृष्णभावनामृत आन्दोलन अनिवार्य है क्योंकि यह जीवन की चरम सिद्धि प्रदान करने वाला है। ऐसा क्यों है, इसकी पूरी व्याख्या भगवद्गीता में हुई है । दुर्भाग्यवश संसारी झगड़ालू व्यक्तियों ने अपनी आसुरी लालसाओं को अग्रसर करने तथा लोगों को जीवन के सिद्धान्तों को ठीक से न समझने देने में भगवद्गीता से लाभ उठाया है । प्रत्येक व्यक्ति को जानना चाहिए कि ईश्र्वर या कृष्ण कितने महान हैं और जीवों की वास्तविक स्थितियाँ क्या हैं ? प्रत्येक व्यक्ति को यह जान लेना चाहिए कि "जीव" नित्य दास है और जब तक वह कृष्ण की सेवा नहीं करेगा, तब तक वह जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ता रहेगा, यहाँ तक कि मायावादी चिन्तक को भी इसी चक्र में पड़ना पड़ेगा । यह ज्ञान एक महान विज्ञान है और हर प्राणी को अपने हित के लिए इस ज्ञान को सुनना चाहिए ।

इस कलियुग में सामान्य जनता कृष्ण की बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहित है और उसे यह भ्रान्ति है कि भौतिक सुविधाओं की प्रगति से हर व्यक्ति सुखी बन सकेगा । उसे इसका ज्ञान नहीं है कि भौतिक या बहिरंग प्रकृति अत्यन्त प्रबल है, क्योंकि हर प्राणी प्रकृति के कठोर नियमों द्वारा बुरी तरह जकड़ा हुआ है । सौभाग्यवश जीव भगवान् का अंश-रूप है अतएव उसका सहज कार्य है - भगवान् की सेवा करना । मोहवश मनुष्य विभिन्न प्रकारों से अपनी इन्द्रिय तृप्ति करके सुखी बनना चाहता है, किन्तु इससे वह कभी भी सुखी नहीं हो सकता । अपनी भौतिक इन्द्रियों को तुष्ट करने के बजाय उसे भगवान् की इन्द्रियों को तुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए । यही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है । भगवान् यही चाहते हैं और इसी की अपेक्षा रखते हैं । मनुष्य को भगवद्गीता के इस केन्द्र बिन्दु को समझना होगा । हमारा कृष्णभावनामृत आन्दोलन पूरे विश्र्व को इसी केन्द्रबिन्दु की शिक्षा देता है । जो भी व्यक्ति भगवद्गीता का अध्ययन करके लाभान्वित होना चाहता है वह हमारे कृष्णभावनामृत आन्दोलन से इस सम्बन्ध में सहायता प्राप्त कर सकता है । अतः हमें आशा है कि हम भगवद्गीता यथारूप को जिस रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, उससे मानव लाभ उठायेंगे और यदि एक भी व्यक्ति भगवद्भक्त बन सके, तो हम अपने प्रयास सफल मानेंगे

ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी

१२ मई १९७१

सिडनी, आस्ट्रेलिया

अध्याय 1 श्लोक 1 - 1 , BG 1 - 1 Bhagavad Gita As It Is Hindi


अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण (bhagavad gita chapter 1)


श्लोक 1 . 1


धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |
मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय || १ ||


धृतराष्ट्र: उवाच - राजा धृतराष्ट्र ने कहा; धर्म-क्षेत्रे - धर्मभूमि (तीर्थस्थल) में; कुरु-क्षेत्रे -कुरुक्षेत्र नामक स्थान में; समवेता: - एकत्र ; युयुत्सवः - युद्ध करने की इच्छा से; मामकाः -मेरे पक्ष (पुत्रों); पाण्डवा: - पाण्डु के पुत्रों ने; च - तथा; एव - निश्चय ही; अकुर्वत - क्या; किया; सञ्जय - हे संजय ।


धृतराष्ट्र ने कहा -- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?


तात्पर्यः भगवद्गीता एक बहुपठित आस्तिक विज्ञान है जो गीता - महात्मय में सार रूप में दिया हुआ है । इसमें यह उल्लेख है कि मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीकृष्ण के भक्त की सहायता से संवीक्षण करते हुए भगवद्गीता का अध्ययन करे और स्वार्थ प्रेरित व्याख्याओं के बिना उसे समझने का प्रयास करे । अर्जुन ने जिस प्रकार से साक्षात् भगवान् कृष्ण से गीता सुनी और उसका उपदेश ग्रहण किया, इस प्रकार की स्पष्ट अनुभूति का उदाहरण भगवद्गीता में ही है । यदि उसी गुरु-परम्परा से, निजी स्वार्थ से प्रेरित हुए बिना, किसी को भगवद्गीता समझने का सौभाग्य प्राप्त हो तो वह समस्त वैदिक ज्ञान तथा विश्र्व के समस्त शास्त्रों के अध्ययन को पीछे छोड़ देता है । पाठक को भगवद्गीता में न केवल अन्य शास्त्रों की सारी बातें मिलेंगी अपितु ऐसी बातें भी मिलेंगी जो अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं हैं । यही गीता का विशिष्ट मानदण्ड है । स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा साक्षात् उच्चरित होने के कारण यह पूर्ण आस्तिक विज्ञान है ।

महाभारत में वर्णित धृतराष्ट्र तथा संजय की वार्ताएँ इस महान दर्शन के मूल सिद्धान्त का कार्य करती हैं । माना जाता है कि इस दर्शन की प्रस्तुति कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में हुई जो वैदिक युग से पवित्र तीर्थस्थल रहा है । इसका प्रवचन भगवान् द्वारा मानव जाति के पथ-प्रदर्शन हेतु तब किया गया जब वे इस लोक में स्वयं उपस्थित थे ।

धर्मक्षेत्र शब्द सार्थक है, क्योंकि कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन के पक्ष में श्री भगवान् स्वयं उपस्थित थे । कौरवों का पिता धृतराष्ट्र अपने पुत्रों की विजय की सम्भावना के विषय में अत्यधिक संधिग्ध था । अतः इसी सन्देह के कारण उसने अपने सचिव से पूछा, उन्होंने क्या किया ? वह आश्र्वस्थ था कि उसके पुत्र तथा उसके छोटे भाई पाण्डु के पुत्र कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में निर्णयात्मक संग्राम के लिए एकत्र हुए हैं । फिर भी उसकी जिज्ञासा सार्थक है । वह नहीं चाहता था की भाइयों में कोई समझौता हो, अतः वह युद्धभूमि में अपने पुत्रों की नियति (भाग्य, भावी) के विषय में आश्र्वस्थ होना चाह रहा था । चूँकि इस युद्ध को कुरुक्षेत्र में लड़ा जाना था, जिसका उल्लेख वेदों में स्वर्ग के निवासियों के लिए भी तीर्थस्थल के रूप में हुआ है अतः धृतराष्ट्र अत्यन्त भयभीत था कि इस पवित्र स्थल का युद्ध के परिणाम पर न जाने कैसा प्रभाव पड़े । उसे भली भाँति ज्ञात था कि इसका प्रभाव अर्जुन तथा पाण्डु के अन्य पुत्रों पर अत्यन्त अनुकूल पड़ेगा क्योंकि स्वभाव से वे सभी पुण्यात्मा थे । संजय श्री व्यास का शिष्य था, अतः उनकी कृपा से संजय धृतराष्ट्र ने उससे युद्धस्थल की स्थिति के विषय में पूछा ।



पाण्डव तथा धृतराष्ट्र के पुत्र, दोनों ही एक वंश से सम्बन्धित हैं, किन्तु यहाँ पर धृतराष्ट्र के वाक्य से उसके मनोभाव प्रकट होते हैं । उसने जान-बूझ कर अपने पुत्रों पर धृतराष्ट्र के वाक्य से उसके मनोभाव प्रकट होते हैं । उसने जान-बूझ कर अपने पुत्रों को कुरु कहा और पाण्डु के पुत्रों को वंश के उत्तराधिकार से विलग कर दिया । इस तरह पाण्डु के पुत्रों अर्थात् अपने भतीजों के साथ धृतराष्ट्र की विशिष्ट मनःस्थिति समझी जा सकती है । जिस प्रकार धान के खेत से अवांछित पोधों को उखाड़ दिया जाता है उसी प्रकार इस कथा के आरम्भ से ही ऐसी आशा की जाती है कि जहाँ धर्म के पिता श्रीकृष्ण उपस्थित हों वहाँ कुरुक्षेत्र रूपी खेत में दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्र रूपी अवांछित पौधों को समूल नष्ट करके युधिष्ठिर आदि नितान्त धार्मिक पुरुषों की स्थापना की जायेगी । यहाँ धर्मक्षेत्रे तथा कुरुक्षेत्रे शब्दों की, उनकी एतिहासिक तथा वैदिक महत्ता के अतिरिक्त, यही सार्थकता है।
साभार: भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट।
सर्वाधिकार सुरक्षित भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट।
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