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tarapith temple in hindi


tarapith temple
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माँ तारा का सिद्धपीठ तारापीठ: tarapith temple in hindi

51 शक्तिपीठों में तारापीठ का है सबसे अधिक महत्व

तारापीठ (tarapith) बंगाल के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक है। यह पश्चिम बंगाल के बीरभूम ज़िला में स्थित है। यह स्थल हिन्दू धर्म के पवित्रतम तीर्थ स्थानों में गिना जाता है। माना जाता है कि यहाँ पर देवी सती के नेत्र गिरे थे, जबकि कुछ लोगों का यह भी मानना है कि महर्षि वसिष्ठ ने तारा के रूप में यहाँ देवी सती की पूजा की थी। इस स्थान को "नयन तारा" भी कहा जाता है। माना जाता है कि देवी तारा (goddess tara) की आराधना से हर रोग से मुक्ति मिलती है। हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में तारापीठ (tarapith mandir) का सबसे अधिक महत्व है। यह पीठ तंत्र साधना में विश्वास रखने वालों के लिए परम पूज्य स्थल है।

तारापीठ (tarapith temple) में पश्चिम से पूर्व की ओर एक लम्बा और संकरा बाजार है। बाजार शुरु होते ही बस स्टैंड है और बाजार खत्म होने पर भी बस स्टैंड है। बाजार के बीच में तारा माँ का मुख्य मन्दिर (tarapith temple) है और इसी बाजार में निगमानन्द सिद्धपीठ, तारा माँ का प्रथम मन्दिर महाश्मशान में सिद्धपुरुष वामाखेपा समाधि मन्दिर, साधू (सेवा) वामा मिशन, श्री वामाखेपा बाबा आश्रम मन्दिर तथा वामदेव मन्दिर हैं।

बंगाल में यहाँ की बहुत महानता है । बंगला की पौष मास में सातवीं पौष को शान्तिनिकेतन, बोलपुर में बहुत बड़ा मेला लगता है । यात्री मेला देखकर बकरेश्वर जाते हैं और बकरेश्वर देखकर तारापीठ आते हैं और दस बारह लाख यात्री यहाँ आ जाते हैं।


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हिन्दुओं के ५१ शक्तिपीठों में से पाँच वीरभूमि जिले में ही हैं जो निम्नलिखित हैं:
(१) बकरेश्वरः तारापीठ से सिवड़ी होते हुए सीधी बस बकरेश्वर जाती है। यहाँ पर बकरेश्वर शिव मन्दिर है जो मुख्य मन्दिर है तथा देवी मन्दिर है । बकरेश्वर में गर्म पानी के नौ चश्में हैं। इनमें पापहर नामक कुंड को मुख्य तथा पवित्र माना जाता है। कलकत्ता से आंडल और आंडल से दुबराजपुर और दुबराजपुर से बकरेश्वर जा सकते हैं।
(२) नालहाटी: नालहाटी रेलवे स्टेशन का नाम है और शक्तिपीट का नाम बालहाटेश्वरी है यहाँ सती जी के गले का भाग गिरा था।
(३) बन्दीकेश्वरी: स्टेशन-का नाम सेथिया है जो तारापीठ से ३० की० मी० पर है। यहाँ सती जी के कंधे का भाग गिरा था।
(४) फुलोरा देवी: स्टेशन का नाम लाभपुर है छोटी गाड़ी जाती है । यहाँ सती जी के होंठ गिरे थे।
(५) तारापीठ स्टेशन का नाम रामपुरहाट है। यह तारापीठ से छः कि०मी० दूर है। यहाँ पर सती जी के नेत्रों के बीच का भाग (नापन मोनी गिरा था)


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तारापीठ मुख्य मन्दिर (tarapith dham) के सामने महाश्मशान है। उसके बाद द्वारिका नदी है। इस नदी में आश्चर्य की बात यह है कि भारत की सब नदियाँ उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हैं, लेकिन यह नदी दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है।

तारापीठ का इतिहास: History of tarapith in hindi


तारापीठ एक सिद्धपीठ है । यहाँ पर एक सिद्ध पुरुष का जन्म हुआ था। उनका पैतृक आवास आटला गाँव है जो तारापीठ मंदिर से २ कि० मी० दूर है। रिक्शा से आ जा सकते हैं । सिद्ध पुरूष का नाम वामाखेपा है। उनकी माँ तारा के मन्दिर (tarapith darshan) के सामने महाश्मशान में तारा माँ के दर्शन हुए थे। वहीं पर उनको सिद्धि लाभ हुआ और सिद्धपुरुष हुए।

तारापीट राजा दशरथ के कुलपुरोहित वशिष्ट मुनि का "सिद्धासन" और तारा माँ का अधिष्टान हैं। इसलिये यह हिन्दुओं का महातीर्थ है। सुदर्शन चक्र छिन्न होकर सती देवी की आँख में गिरा था। इसलिये इसका नाम तारापीठ है।

यहाँ पर एक बार रतनगढ़ के प्रसिद्ध वैश्य रमापति अपने पुत्र को लेकर नाव द्वारा व्यापार करने आये थे। तारापीठ के पास उनका पुत्र सर्प काटने से मर गया। उन्होंने अपने पुत्र की मृत देह को दूसरे दिन दाह संस्कार करने के लिये रखा और उस दिन तारापुर में ही ठहर गये । उनके एक सेवक ने उनको तारापीठ के एक बड़े तालाब के पास ले जाकर एक आश्चर्यजनक दृश्य दिखाया। उन्होंने देखा कि मरी हुई मछलियाँ तालाब के जल से स्पर्श करके जीवित हो उठती हैं । यह देखकर उनको बहुत खुशी हुई और अपने पुत्र की मृत देह को वहाँ लाकर तालाब में फेंक दिया। उसी समय उनका पुत्र जीवित हो गया। उसी दिन से उस तालाब का नाम 'जीवन कुंड' पड़ा।
रमापति वैश्य ने तालाब के पास एक टूटा हुआ मन्दिर देखा और उसमें उन्होंने चन्द्रचूड़ अनादि शिवलिंग और तारा माँ की मूर्ति देखी। उन्होंने अपने आप को धन्य माना और अपने पैसे से ही उन्होंने मन्दिर की मरम्मत कराई और पूजा की। वे वहाँ भगवान नारायण की एक मूर्ति स्थापित करना चाहते थे, किन्तु किसी ऋषि के आदेश अनुसार तारा माँ की मूर्ति में ही नारायण की पूजा होगी। काली और कृष्ण अलग-अलग नहीं । उनकी जिस तरह पूजा होनी चाहिये उसी तरह ही उन्होंने पूजा की और काली तथा कृष्ण की मूर्ति के भाव अनुसार एक ही मूर्ति प्रतिष्ठित कराई। तत्पश्चात् चन्द्रचूड शिव और तारा माँ की पूजा करके अपने पुत्र को लेकर आनन्दपूर्वक अपने घर चले गये। तारा माँ का मन्दिर बहुत ही प्राचीन और सिद्ध पीठ है।


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सिद्ध पुरुष वामाखेपा: sage Bamakhepa in hindi

तारापीठ से दो कि० मी० दूरी पर स्थित आटला गाँव में १२४४ साल के फाल्गुन महीने में शिव चतुर्दशी के दिन वामाखेपा का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम सर्वानन्द चट्टोपाध्याय था। माता जी का नाम राजकुमारी था। इन का बचपन का नाम वामाचरण था और छोटे भाई का नाम रामचरण था। चार बहनें थीं। एक बहन का लड़का भी रहता था। इस तरह परिवार में नौ सदस्य थे। घर में खाने-पीने की चीजों का सदा अभाव रहता था। माता-पिता बहुत धार्मिक थे और भजन कीर्तन करते रहते थे।

५ वर्ष की आयु में ही वामाचरण ने माँ तारा की बहुत सुन्दर मूर्ति बना कर उसमें चार हाथ, गले में मुंडमाला और अपने बाल उखाड़ कर तारा माँ के बाल लगाये थे। पास में ही एक जामुन का पेड़ था। जामुन से ही माँ तारा का प्रसाद लगाते थे और कहते थे कि माँ तारा जामुन खा लो। अगर तुम नहीं खाआंगी तो मैं कैसे खाऊँगा?

वामाचरण धीरे-धीरे बड़े होने लगे जब वह 11 वर्ष के थे और उनका भाई केवल पाँच वर्ष का था तब उनके ऊपर बड़ी भारी मुसीबत आई। उनके पिता सर्वानन्द जी बहुत बीमार हो गये ओर माँ काली, माँ तारा कहते हुए स्वर्ग सिधार गये। वामाचरण ने पिता जी की मृत देह को तारापीठ के श्मशान में ले जाकर, उनका अंतिम संस्कार किया। विधवा माँ ने किसी तरह से मांग कर श्राद्ध का काम पूरा किया। घर की हालत खराब सुनकर वामाचरण के मामा आकर दोनों भाइयों को अपने घर नवग्राम में ले गये । वामा चरण गाय चराने लगे और रामचरण गाय के लिये घास काट कर लाते और आधापेट झूठा भात खाकर रहते । एक दिन रामचरण के हँसिये से घाम काटते हुए वामाचरण की उंगली कट गई और गाय खेत में जाकर फसल खान लगी। खेत के मालिक ने मामा को शिकायत कर दी। मामा ने वामाचरण को छड़ी लेकर बहुत मारा। तत्पश्चात् वामाचरण भाग कर अपनी माँ के पास आटला ग्राम में चले आये । उधर रामचरण को एक साधु गाना सिखाने के लिये अपने साथ ले गये । वामा चरण ने घर आकर निश्चय किया कि वे अब श्मशान में रहेंगे । उस दिन पूर्णमासी थी । वहाँ पर कई आदमी बैठे थे। वामाचरण उनके पैर दबाते-दबाते सो गये।


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एक बार वामाचरण ने एक वैरागी से गांजा पीकर उसकी आग असावधानी से फेंक दी। उस से भंयकर आग लग गई और कई घर जल गये। सभी लोग वामाचरण को पकड़ने लगे । वामाचरण उस आग में कूद पड़े और जब वे आग से बाहर निकले तो उनका शरीर सोने की तरह चमक रहा था। माँ तारा ने अपने पुत्र वामाचरण की अग्नि से रक्षा की थी। इस बात को देखकर सभी अवाक् रह गये थे।

तत्पश्चात् वामाचरण का साधक जीवन आरम्भ हुआ । मोक्षदानन्द बाबा व साईं बाबा आदि ने उन्हें महाश्मशान में आश्रय दिया। कैलाश पति बाबा उन्हें बहुत प्यार करते थे। एक दिन कैलाश्पति बाबा ने रात में वामा को गांजा तैयार करने के लिये बुलाया। उस रात वामाचरण को बहुत डर लगा। असंख्य दैत्याकार आकृतियाँ उनके चारों ओर खड़ी थीं । वामा ने जय गुरु, जय तारा पुकारा और वे सब आकृतियाँ लुप्त हो गई और वामाचरण ने कैलाश्पति बाबा के आश्रम में जाकर गांजा तैयार किया।

काली पूजा की रात में वामाचरण का अभिषेक हुआ। सिद्ध बीज मंत्र पाकर वामा का सब उलट-पुलट हो गया और सैमल वृक्ष  नीचे जप-तप करने लगे। शिव चौदस के दिन वामाचरण ने सिद्ध बीज मंत्र जपना शुरू किया। सुबह से शाम तक ध्यान मग्न होकर तारा माँ के ध्यान में लगे रहे। खाना पीना भी भूल गये। रात में दो बजे उनका शरीर कांपने लगा । सारा श्मशान अचानक फूलों की महक से महक उठा। नीले आकाश से ज्योति फूट पड़ी और चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश फैल गया। उसी प्रकाश में वामाचरण को तारा माँ के दर्शन हुए। बाघ की खाल पहने हुए एक हाथ में तलवार, एक हाथ में कंकाल की खोपड़ी, एक हाथ में कमल फूल और एक हाथ में अस्त्र लिये हुए, आलता लगे पैरों में पायल पहने, खुले हुए केश, जीभ बाहर निकली हुई, गले में जावा फूल की माला पहने, मंद-मंद मुसकाती हुई माँ तारा वामा के सन्मुख खड़ी थी। वामाचरण उस भव्य और सुन्दर देवी को देखकर खुशी से भर गये । १८ वर्ष की अल्पायु में और विश्वास के बल पर वामा को सिद्धि प्राप्त हुई और वे वामचरण संसार में पूज्य हुए। जिस प्रकार परमहंस रामा कृष्णा को दक्षिणेश्वर में माँ काली के दर्शन हुए थे, उसी प्रकार वामाचरण को भी तारापीठ के महामशान में माँ तारा के दर्शन हुए थे।


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जब वामाचरण की माता का स्वर्गवास हो गया, उस समय द्वारका नदी में बाढ़ आई हुई थी। किन्तु वामाचरण तारा माँ, तारा माँ कहते हुए नदी में कूद गये और नदी के दूसरे किनारे पर पहुँच कर अपनी माता के मृत शरीर को अपनी पीठ पर रखकर फिर पानी में कूद पड़े और महाश्मशान में लाकर अपनी माता का अन्तिम संस्कार किया। माँ के श्राद्ध के दिन खाली जमीन साफ करा कर सब गाँव वालों को निमंत्रण भेज दिया। अपने आप अनेक प्रकार के स्वादिष्ट पकवान वामाचरण के घर में आने लगे। सारे गाँव के अतिथि गण राजाओं के खाने योग्य जैसे छत्तीस प्रकार के पकवान खाने लगे। तभी आकाश में घने बादल छा गये। वामाचरण ने माँ तारा को याद करके लकड़ी लेकर उससे चारों तरफ एक घेरा खींच दिया, मूसलाधार वर्षा हुई, परन्तु घेरे के अन्दर एक बूंद पानी नहीं गिरा और अतिथियों ने आनन्दपूर्वक भोजन किया। जब अतिथि गण भोजन करके जाने लगे तो वामाचरण ने माँ तारा को याद करके बादलों को साफ कर दिया और बारिश रुक गई।

वामाचरण को देखने से लगता था कि वह बड़े कठोर हैं लेकिन उनका हृदय बड़ा पवित्र तथा कोमल था। वे अपने भक्तों के अनुरोध पर कई असाध्य रोगों को ठीक कर दिया करते थे। धीरे-धीरे वामाचरण की उम्र भी बढ़ती गई और वे ७२ साल के हो गये। कृष्णाष्टमी का दिन था। वामाचरण तारा माँ का प्रसाद खा रहे थे। अचानक कुत्ते बड़ी जोर से चिल्लाने लगे। फिर एक कंकाल की तरह के चेहरे वाला एक सन्यासी आया और फीकी-सी हंसी हंसते हुए बोला - अब क्या बाबा, चलो, तुम को अपने साथ ही ले चलूंगा। उस दिन भक्त लोग उनको घेर कर बैठे रहे। बाबा की साँस जोर-जोर से चल रही थी. अचानक उनकी नाक का अग्र भाग लाल हो उठा। सभी लोग तारा माँ, तारा माँ पुकारने लगे और तारा माँ, तारा माँ सुनाई पड़ने के साथ ही वामाचरण का शरीर स्थिर हो गया और एक महायोगी योगमाया में लीन हो गया। चारों और वामाचरण के स्वर्ग सिधारने की खबर फैल गई और वीरभूमि जिले के सभी लोग उस सिद्ध पुरुष के दर्शन करने के लिये उमड़ पड़े। महाश्मशान के पास ही एक नीम के पेड़ के नीचे उनको समाधि दी गई। तारा माँ का सब से योग्य पुत्र तारा माँ में ही समा गया।

महाश्मशान में तारा माँ का पादपद मन्दिर है। यह असली जगह है। यहाँ पर आकर यात्री लोग अपनी मनोकामना के लिये ध्यान करते हैं और उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती है । इस मन्दिर के पास में ही वामाचरण (वामाखेपा) का समाधि मन्दिर है। श्मशान में बड़े-बड़े साधु संतों की समाधियाँ भी हैं। साथ में कई समाधि मन्दिर भी हैं। अभी भी श्मशान में बहुत साधु अपनी-अपनी कुटी बना कर रहते हैं। यहाँ पर बहुत मुर्दे भी जलाये जाते हैं। नदी में बाढ़ आने पर भी चिता पर पानी नहीं आयेगा। यह एक विशेष बात है।
तारापीठ में बहुत साधु अपना आश्रम बना चुके हैं जैसा कि पदानिकेतन आश्रम है जो धर्मशाला के सामने है। कोई-कोई समय में यहाँ बहुत बड़ा उत्सव होता है। तारापीठ में एक और जगह देखने योग्य है। उसका नाम है मुंडुमालनीतला । वहाँ पर भी तारा माँ की मूर्ति है। सुना है कि काली माँ अपने गले की मुंडुमाला वहाँ रखकर द्वारका नदी में स्नान करके माला पहन लेती हैं। इसलिये इस का नाम मुडुमालनी है । यहाँ पर भी एक श्मशान है । तारापीठ के मुख्य मन्दिर से १५ मिनट का रास्ता है। यहाँ पर तारापीठ का अन्त है।


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तारापीठ में देवी सती के नेत्र गिरे थे, इसलिए इस स्थान को नयन तारा भी कहा जाता है। कहते हैं, यहां तंत्र साधकों के अलावा जो भी लोग यहां मुराद मांगने आते हैं, वह पूर्ण होता है। देवी तारा के सेवा आराधना से हर रोग से मुक्ति मिलती है।

इस स्थान पर सकाम और निष्काम दोनों प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं. त्रिताप को जो नाश करती है, उसे तारा कहते हैं. ताप चाहे कोई सा भी हो, विष का ताप हो, दरिद्रता का ताप हो या भय का ताप, देवी तारा माता सभी तापों को दूर कर जीव को स्वतंत्र बनाती है।

यदि किसी का शरीर रोग से ग्रस्त हो गया है या कोई प्राणी पाप से कष्ट भोग रहा है, वह जैसे ही दिल से तारा-तारा पुकारता है, तो ममतामयी तारा माता अपने भक्तों को इस त्रिताप से मुक्त कर देती है।

तारा अपने शिव को अपने मस्तक पर विराजमान रखती हैं। वे जीव से कहती है चिंता मत करो, चिता भूमि में जब मृत्यु वरण करोगे तो मैं तुम्हारे साथ रहूंगी, तुम्हारे सारे पाप, दोष सभी बंधन से मैं मुक्त कर दूंगी।

माँ तारा के बारे में पुराणों में एक कथा है. बहुत पहले, जब ऋषि वशिष्ठ पृथ्वी पर आये, तो उन्होंने देवी तारा की पूजा की। हालाँकि लंबे समय तक देवी का ध्यान करने के बाद भी वह उनके दर्शन नहीं पा सके। अंत में, एक दिव्यवाणी हुई और ऋषि वशिष्ठ को रामपुरहाट में श्मशान घाट पर माँ तारा का ध्यान करने के लिए परामर्श दिया गया। ऋषि वशिष्ठ ने वैसा ही किया और देवी के दर्शन प्राप्त करते हुए अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त की। महर्षि वशिष्ठ की तपस्या से उत्पन्न शक्ति और माँ तारा की उपस्थिति के कारण, यह स्थान एक सिद्ध पीठ माना जाता है।

देवी तारा को अपने उपासकों को वांछित वरदान देने के लिए जाना जाता है। तारापीठ मंदिर में देवी की प्रतिमा राजसी रूप से साड़ी और चांदी का मुकुट पहनती हैं, और उनके उजले बालों में लाल सिंदूर लगाती हैं। मंदिर के पुजारियों द्वारा आशीर्वाद के निशान के रूप में भक्तों के माथे का सिंदूर से अभिषेक किया जाता है। केले, नारियल, मिठाई, साड़ी और यहां तक ​​कि शराब भी देवी को अर्पित की जाती है। बकरे की बलि मंदिर परिसर में एक दैनिक रिवाज है और पशु का रक्त देवी तारा को अर्पित किया जाता है ताकि वह प्रसन्न हो सके।

देवी के मंदिर के करीब स्थित श्मशान भूमि सबसे रहस्यमय स्थानों में से एक है। यह स्थान एक जंगल और इसके माध्यम से बहने वाली एक नदी से घिरा हुआ है, और श्मशान घाट पर संस्कार करने वाले राख-धूसरित तांत्रिकों का पता लगाना काफी स्वाभाविक है। यह माना जाता है कि देवी तारा को श्मशान भूमि में भटकना और बलिदान किए गए जानवरों का ताजा खून पीना पसंद है। कई साधुओं ने श्मशान घाट में झोपड़ियां बनाईं और उन्हें मनुष्यों और जानवरों की खोपड़ियों से सजाया।

तारापीठ कैसे पहुंचें: how to reach tarapith


तारापीठ मंदिर तक पहुँचने के लिए, कोलकाता से सीधी ट्रेन लें और रामपुरहाट रेलवे स्टेशन पर उतरें। यह मंदिर तारापुर गांव में स्थित है, जो रामपुरहाट रेलवे स्टेशन से  कुछ किलोमीटर की दूरी पर है। पर्यटकों और तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए तारापीठ में कुछ अच्छे बजट होटल स्थित हैं। रामपुरहाट से तारापुर पहुँचने के लिए शटल सेवाएं उपलब्ध हैं।

तारापीठ मंदिर की आरती यहाँ देखें: 




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