mother's day |
मदर्स डे पर विशेष
हिंदू पौराणिक कथाओं में माँ का स्थान सबसे ऊँचा (Great mothers in Indian mythology in hindi)
माँ का सम्मान करना और उन्हें उच्च स्थान देना हर संस्कृति की विशेषता है। चाहे वह ईसाई धर्म की वर्जिन मैरी हो या हिंदू धर्म से ताल्लुक रखने वाली देवी-देवताओं की असंख्य माताएँ हमेशा से ही आदरणीय और पूज्य रही हैं। माँ जीवन का स्रोत है। एक बच्चे की परवरिश में माँ की भूमिका अतुलनीय है। वह माँ ही है, जो बच्चे के लिए पहली पाठशाला के रूप में काम करती है। वह बच्चे को संस्कृति, व्यवहार और जीवन के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं की मूल बातें सिखाती है। तभी तो हमारे यहाँ कहा जाता है कि भगवान हर जगह मौजूद नहीं हो सकते हैं और इसीलिए उन्होंने मां को बनाया है।पौराणिक कथाओं में कई उदाहरण हैं, जहां गौरवशाली माताएं अपने महान और पराक्रमी बेटों के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये माताएं आज के समाज में हर महिला के लिए एक आदर्श हैं। वे अपने आप में अमर हो गई हैं और तब तक याद की जाती रहेंगी, जब तक हमारी सभ्यता मौजूद है। मदर्स डे पर आज हम आपके लिए हिंदू पौराणिक कथाओं में उल्लिखित कुछ महान माँओं की सूची लेकर आए हैं। उन्होंने कठिन परिस्थितियों का सामना करने में असाधारण साहस दिखाया है या मुश्किल स्थितियों में भी असामान्य ताकत का परिचय दिया है।
महासती अनसूया (story of sati anusuya in hindi)
एक बार नारदजी विचरण कर रहे थे, तभी तीनों देवियां मां लक्ष्मी, मां सरस्वती और मां पार्वती को उन्होंने परस्पर विमर्श करते देखा। तीनों देवियां अपने सतीत्व और पवित्रता की चर्चा कर रही थी। नारद जी उनके पास पहुंचे और उन्हें अत्रि महामुनि की पत्नी अनुसूया के असाधारण पातिव्रत्य के बारे में बताया। नारद जी बोले कि उनके समान पवित्र और पतिव्रता तीनों लोकों में नहीं है। तीनों देवियों को मन में अनुसूया के प्रति ईर्ष्या होने लगी। तीनों देवियों ने सती अनसूया के पातिव्रत्य को खंडित के लिए अपने पतियों को कहा। तीनों ने उन्हें बहुत समझाया पर पर वे राजी नहीं हुई।
इस विशेष आग्रह पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने सती अनसूया के सतित्व और ब्रह्मशक्ति परखने की सोची। जब अत्रि ऋषि आश्रम से कहीं बाहर गए थे, तब ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ने यतियों का भेष धारण किया और अत्रि ऋषि के आश्रम में पहुंचे तथा भिक्षा मांगने लगे। अतिथि-सत्कार की परंपरा के चलते सती अनुसूया ने त्रिमूर्तियों का उचित रूप से स्वागत कर उन्हें खाने के लिए निमंत्रित किया।
लेकिन यतियों के भेष में त्रिमूर्तियों ने एक स्वर में कहा, ‘हे साध्वी, हमारा एक नियम है कि जब तुम निर्वस्त्र होकर भोजन परोसोगी, तभी हम भोजन करेंगे।'
अनसूया असमंजस में पड़ गई कि इससे तो उनके पातिव्रत्य के खंडित होने का संकट है। उन्होंने मन ही मन ऋषि अत्रि का स्मरण किया। दिव्य शक्ति से उन्होंने जाना कि यह तो त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं।
मुस्कुराते हुए माता अनुसूया बोली 'जैसी आपकी इच्छा'.... तीनों यतियों पर जल छिड़क कर उन्हें तीन प्यारे शिशुओं के रूप में बदल दिया। सुंदर शिशु देख कर माता अनुसूया के हृदय में मातृत्व भाव उमड़ पड़ा। शिशुओं को स्तनपान कराया, दूध-भात खिलाया, गोद में सुलाया। तीनों गहरी नींद में सो गए।
अनसूया माता ने तीनों को झूले में सुलाकर कहा- ‘तीनों लोकों पर शासन करने वाले त्रिमूर्ति मेरे शिशु बन गए, मेरे भाग्य को क्या कहा जाए। फिर वह मधुर कंठ से लोरी गाने लगी।
उसी समय कहीं से एक सफेद बैल आश्रम में पहुंचा, एक विशाल गरुड़ पंख फड़फड़ाते हुए आश्रम पर उड़ने लगा और एक राजहंस कमल को चोंच में लिए हुए आया और आकर द्वार पर उतर गया। यह नजारा देखकर नारद, लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती आ पहुंचे।
नारद ने विनयपूर्वक अनसूया से कहा, ‘माते, अपने पतियों से संबंधित प्राणियों को आपके द्वार पर देखकर यह तीनों देवियां यहां पर आ गई हैं। यह अपने पतियों को ढूंढ रही थी। इनके पतियों को कृपया इन्हें सौंप दीजिए।'
अनसूया ने तीनों देवियों को प्रणाम करके कहा, ‘माताओं, झूलों में सोने वाले शिशु अगर आपके पति हैं तो इन्हें आप ले जा सकती हैं।'
लेकिन जब तीनों देवियों ने तीनों शिशुओं को देखा तो एक समान लगने वाले तीनों शिशु गहरी निद्रा में सो रहे थे। इस पर लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती भ्रमित होने लगीं।
नारद ने उनकी स्थिति जानकर उनसे पूछा- ‘आप क्या अपने पति को पहचान नहीं सकतीं? जल्दी से अपने-अपने पति को गोद में उठा लीजिए।'
देवियों ने जल्दी में एक-एक शिशु को उठा लिया। वे शिशु एक साथ त्रिमूर्तियों के रूप में खड़े हो गए। तब उन्हें मालूम हुआ कि सरस्वती ने शिवजी को, लक्ष्मी ने ब्रह्मा को और पार्वती ने विष्णु को उठा लिया है। तीनों देवियां शर्मिंदा होकर दूर जा खड़ी हो गईं। तीनों देवियों ने माता अनुसूया से क्षमा याचना की और यह सच भी बताया कि उन्होंने ही परीक्षा लेने के लिए अपने पतियों को बाध्य किया था। फिर प्रार्थना की कि उनके पति को पुन: अपने स्वरूप में ले आए।
माता अनसूया ने त्रिदेवों को उनका रूप प्रदान किया। तीनों देव सती अनसूया से प्रसन्न हो बोले, देवी ! वरदान मांगो।
त्रिदेव की बात सुन अनसूया बोलीः- “प्रभु ! आप तीनों मेरी कोख से जन्म लें ये वरदान चाहिए अन्यथा नहीं...
तभी से वह मां सती अनुसूया के नाम से प्रख्यात हुई तथा कालान्तर में भगवान दतात्रेय रूप में भगवान विष्णु का, चन्द्रमा के रूप में ब्रह्मा का तथा दुर्वासा के रूप में भगवान शिव का जन्म माता अनुसूया के गर्भ से हुआ।
देवी लक्ष्मी का अवतार सीता देवी (story of devi sita in hindi)
कुंती (story of mother Kunti in hindi)
यशोदा (story of mother yashoda in hindi)
यशोदा और श्रीकृष्ण की पहले भेंट के बारे में बताया जाता है कि जब यशोदाजी प्रसव पीड़ा सह रही थीं तो अचानक ही सूतिकागृह अभिनव प्रकाश से भर गया। सर्वप्रथम रोहिणी माता की आंखें खुलीं। वे जान गयीं कि यशोदा ने पुत्र को जन्म दिया है। विलम्ब होते देख रोहिणीजी दासियों से बोल उठीं− अरी! तुम सब क्या देखती ही रहोगी? कोई दौड़कर नन्दजी को सूचना दे दो। फिर क्या था, दूसरे ही क्षण सूतिकागार आनन्द और कोलाहल में डूब गया। एक नन्दजी को सूचना देने के लिए दौड़ी। एक दाई को बुलाने के लिए गयी। एक शहनाई वाले के यहां गयी। चारों ओर आनन्द का माहौल हो गया। सम्पूर्ण ब्रज ही मानो प्रेमानंद में डूब गया।
कंस को जब अपने संहारक के रूप में श्रीकृष्ण के जन्म लेने और उनके गोकुल में मौजूद होने के बारे में पता चला तो उन्होंने बालक श्रीकृष्ण को मारने के लिए अपनी बहन पूतना को भेजा जोकि अपने स्तनों में विष लगाकर गोपी वेश में यशोदा नंदन श्रीकृष्ण को मारने के लिए आयी। वह श्रीकृष्ण को स्तनपान कराने लगी पर श्रीकृष्ण दूध के साथ उसके प्राणों को भी पी गये। शरीर छोड़ते समय श्रीकृष्ण को लेकर पूतना मथुरा की ओर दौड़ी। यह सब देख यशोदाजी व्याकुल हो उठीं। उनके जीवन में चेतना का संचार तब हुआ, जब गोप सुंदरियों ने श्रीकृष्ण को लाकर उनकी गोद में डाल दिया।
यशोदानंदन श्रीकृष्ण जैसे जैसे बढ़ने लगे। मैया का आनन्द भी उसी क्रम में बढ़ रहा था। जननी का प्यार पाकर श्रीकृष्ण 81 दिनों के हो गये। मैया एक दिन अपने सलोने श्रीकृष्ण को नीचे पालने में सुला आयी थीं तभी कंस के द्वारा भेजा गया उत्कच नामक दैत्य आया और शकट में प्रविष्ट हो गया। वह शकट को गिराकर श्रीकृष्ण को पीस डालना चाहता था। इसके पूर्व ही श्रीकृष्ण ने शकट को उलट दिया और शकटासुर का अंत हो गया।
भगवान श्रीकृष्ण ने माखन लीला, उखल बंधन, कालिय उद्धार, गोचारण, धेनुक वध, दावाग्नि पान, गोवर्धन धारण, रासलीला आदि अनेक लीलाओं से यशोदा मैया को अपार सुख प्रदान किया। इस प्रकार ग्यारह वर्ष छह महीने तक माता यशोदा का महल श्रीकृष्ण की किलकारियों से गूंजता रहा। आखिर श्रीकृष्ण को मथुरापुरी ले जाने के लिए अक्रूर आ ही गये। अक्रूर ने आकर यशोदाजी के हृदय पर मानो अत्यंत क्रूर वज्र का प्रहार किया। पूरी रात नन्दजी श्रीयशोदा को समझाते रहे, पर किसी भी कीमत पर वे अपने प्राणप्रिय पुत्र को कंस की रंगशाला में भेजने के लिए तैयार नहीं हो रही थीं। आखिर योगमाया ने अपनी माया का प्रभाव फैलाया। श्रीकृष्ण चले गये तो यशोदा विक्षिप्त−सी हो गयीं। उनका हृदय तब शीतल हुआ, जब वे कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण से मिलीं।
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